कहते कहते रूक जाना,
अच्छा नहीं होता..
जानता हूँ मैं..
कितनी ही आशंकाए जन्म ले लेती हैं,
खर-पतवारों की तरह,
और मन की जड़े
घिर जाती है अनिश्चित्ता की फसाद से..
सरल नहीं होता,
मन को साफ करना!
खर-पतवारों से सुरक्षित करना,
श्रम लगता है, बगियां को खिलाने में..
कई दिनों में खिलता है फूल..
मसलने में बस एक क्षण…
मगर..
भूल हो गयी मुझसे..
कहते कहते..रूक गया मैं..
खर-पतवार निकल आयी
मेरे वजूद से
बड़ी होने लगी…
पर जो फूल खिलाता हैं,
उससे पूछो..फूल मसला जाता है तो
कैसा महसूस होता है,
फूल से ज्यादा दर्द होता है माली का..
फिर भी,
माली अपनी गलती के लिए,
बगियां से क्षमाप्रार्थी ही रहता है!